उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास बसे कौडसी गांव की एक 300 साल पुरानी जर्जर हवेली इतिहास और विरासत की मिसाल पेश कर रही है। इस हवेली पर लिपटी बेलें और यहां पसरी खामोशी बीते दौर की यादें खुद में समेटे हैं। इस हवेली को उस दौर में बनाया गया था जब न तो सीमेंट था और न ही आधुनिक निर्माण सामग्री। इसकी दीवारों को उड़द की दाल और चूने के मिश्रण से बनाया गया है जो उस वक्त की पारंपरिक निर्माण तकनीक को दिखाती हैं।
हवेली में इस्तेमाल किए गए लकड़ी के बड़े आकार के टुकड़े अब भी ठोस और अपनी जगह पर जस के तस लगे हुए हैं। इनमें से कई 400 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। ये बेहतरीन शिल्पकला की गवाही दे रहे हैं। हवेली की देखरेख करने वाले बताते हैं कि कौडसी गांव भी करीब 300 साल पुराना है। मुगल शासक औरंगज़ेब के शासनकाल में हरियाणा के थानेश्वर से कुछ लोग यहां आकर बसे थे। उस वक्त इस इलाके में टिहरी रियासत का शासन था और ज़मींदारी व्यवस्था नागाओं के अधीन हुआ करती थी। उन्हीं के संरक्षण में इस हवेली का निर्माण कराया गया था।
कौडसी गांव में हरियाणा से आकर बसे इन लोगों ने अपनी भाषा और संस्कृति को आभी संजोए रखा है। गांव में आज भी हरियाणवी बोली सुनने को मिलती है और यहां के पारंपरिक रीति-रिवाजों में भी हरियाणा की झलक देखने को मिलती है।
कौडसी गांव के ज्यादातर युवा नौकरी और व्यवसाय की वजह से बाहर ही रहते हैं। ऐसे में गांव में अब बुजुर्गों की संख्या ही ज्यादा दिखती है। वे उस वक्त को याद करते हैं जब हर तरफ सिर्फ खुशहाली दिखती थी।
कौडसी गांव की ये हवेली सिर्फ दीवारों और लकड़ी के टुकड़ों के साथ मौजूद एक जर्जर इमारत नहीं है। बल्कि ये अपने भीतर अनगिनत अनकही कहानियां समेटे हुए है। ये हरियाणा की संस्कृति को उत्तराखंड की धरती से जोड़ने वाली गहरी जड़ों को बयां करती है। इसे सिर्फ यादों के लिए नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित किए जाने की जरूरत है ताकि वे इससे जुड़े इतिहास से रुबरू हो सकें।