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16वीं सदी की ‘राजों की बावली’ संरक्षण के बाद जनता के लिए फिर खुली

भारत की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विरासत को संरक्षित करने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने वर्ल्ड माउंटेन फंड इंडिया के साथ मिलकर दिल्ली के महरौली पुरातत्व पार्क में मौजूद 16वीं सदी की ‘राजों की बावली’ के संरक्षण का काम पूरा कर लिया है। इसका जीर्णोद्धार, वर्ल्ड माउंटेन फंड इंडिया की देश भर में ऐतिहासिक जल निकायों को संरक्षित करने की पहल का हिस्सा है, यह आधुनिक जलवायु चुनौतियों से निपटने के लिए पारंपरिक जल प्रणालियों की भूमिका को अहमियत देती है।

प्रोजेक्ट मैनेजर एनाबेल लोपेज ने कहा कि “यह एक बड़ी पहल का हिस्सा है जो एक विश्व स्मारक द्वारा देश भर में ऐतिहासिक जल निकायों को संरक्षित करने के लिए की जाती है। जब हमने पहली बार इस स्थल के संरक्षण के लिए एएसआई से संपर्क किया, तो पूरा क्षेत्र जिसे आप बावली के चारों ओर देख सकते हैं, पानी में डूबा हुआ था और पानी बावली के मेहराबों के शीर्ष तक पहुंच गया था। इसलिए जब हमने काम शुरू किया तो पहली चुनौती ये पता लगाना था कि पानी इस क्षेत्र में क्यों भर रहा था और इसका समाधान कैसे किया जाए।”

‘राजों की बावली’ के संरक्षण के लिए सबसे पहले पारंपरिक तरीकों से गाद निकाला गया, इसकी मरम्मत की गई, फिर पानी की गुणवत्ता में सुधार किया गया। लोदी वंश की वास्तुकला की अखंडता को बनाए रखने के लिए चूने का प्लास्टर और मोर्टार लगाया गया, साथ ही नया ड्रेनेज सिस्टम बनाया गया। पानी की प्राकृतिक स्वच्छता बनाए रखने के लिए उसमें मछलियां भी डाली गईं।

‘राजों की बावली’ जैसे ऐतिहासिक जल स्त्रोत जल प्रबंधन और रोजमर्रा के कामकाज के लिए काफी उपयोगी माने जाते थे, खासकर ऐसे इलाकों में जहां नदी के पानी का बहाव कम होता था। रोजाना की जरूरत के अलावा इनका इस्तेमाल यात्रियों के लिए कमरे के तौर पर और सांस्कृतिक संगम स्थल के रूप में भी किया जाता था। लोदी राजवंश के दौरान 1506 के आस-पास बनी ‘राजों की बावली’ उन्नत जल प्रबंधन और शिल्प कौशल का बेहतरीन उदाहरण है, सालों तक जनता के लिए बंद रहने के बाद इसे फिर से खोल दिया गया है।