नयी दिल्ली, 10 सितंबर (भाषा) केंद्र ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय को बताया कि वह राज्य विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों द्वारा अनिश्चित काल तक बैठे रहने को उचित नहीं ठहरा रहा है, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश (राज्यपालों) ने उसी तरह कार्य किया जैसा सर्वोच्च न्यायालय चाहता था।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष यह भी कहा कि राज्यपाल ‘रबर स्टाम्प’ नहीं होते हैं।
केंद्र की ओर से पेश मेहता के अनुसार, यह दलील कि राज्यपाल के पास संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कोई विवेकाधिकार नहीं है या उसे किसी भी परिस्थिति में किसी विधेयक को रोकने का कोई अधिकार नहीं है, संविधान के संरक्षण, सुरक्षा और रक्षा की उनकी शपथ का उल्लंघन होगा।
शीर्ष अदालत राष्ट्रपति के संदर्भ की सुनवाई कर रही है।
मेहता ने राष्ट्रपति संदर्भ के विरुद्ध विपक्ष-शासित राज्यों की दलीलों का विरोध करते हुए कहा, ‘‘कुछ अपवादों को छोड़कर राज्यपालों ने उसी तरह कार्य किया जैसा सर्वोच्च न्यायालय चाहता था।’’
मेहता ने कहा, ‘‘मैं राज्यपालों द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक लंबित रखने के कृत्य को उचित नहीं ठहरा रहा हूं, लेकिन कोई सीधा-सादा फॉर्मूला नहीं हो सकता।’’
संविधान पीठ में न्यायमूर्ति गवई के अलावा न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर भी शामिल हैं।
विधि अधिकारी ने विपक्ष-शासित तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश द्वारा राष्ट्रपति के संदर्भ के विरुद्ध दलीलों का खंडन करते हुए कहा कि यदि उनकी दलीलें मान ली गईं, तो इससे भारत के राष्ट्रपति का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यपाल का कार्यालय पूरी प्रक्रिया में बिना किसी ‘‘सहभागी, सहयोगी या यहां तक कि सीमित सलाहकार की भूमिका’’ के, एक ‘‘मूकदर्शक’’ बनकर रह जाएगा।
मेहता ने अनुच्छेद 159 के तहत राज्यपाल द्वारा ली गई शपथ का उल्लेख करते हुए कहा, ‘‘संविधान के संरक्षण और सुरक्षा की ही नहीं, बल्कि संविधान की रक्षा की शपथ भी केवल भारत के राष्ट्रपति और राज्यपाल ही लेते हैं। यदि राज्यपाल की भूमिका सीमित कर दी जाती है, जैसा कि संदर्भ का विरोध करने वाले पक्ष तर्क दे रहे हैं, तो वह संविधान के संरक्षण, सुरक्षा और रक्षा के लिए अपनी ओर से कोई कार्रवाई करने की आवश्यकता होने पर भी कुछ नहीं कर पाएंगे।’’
उन्होंने आगे कहा कि यदि कोई विधेयक न केवल किसी केंद्रीय कानून के प्रतिकूल हो, बल्कि पूरी तरह से असंवैधानिक भी हो, तो भी राज्यपाल को स्वीकृति रोकने के अपने कर्तव्य से वंचित कर दिया जाएगा।
मेहता ने कहा, ‘‘यह व्याख्या संविधान की उत्पत्ति के विपरीत है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह भविष्य के लिए एक खतरनाक मिसाल कायम करती है।’’
उनकी दलील केरल के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता के. के. वेणुगोपाल की इस दलील की ओर इशारा करती है कि राज्यपालों को विधेयकों पर स्वीकृति देते समय परामर्श करना चाहिए।
मेहता ने देश की लोकतांत्रिक और संघीय व्यवस्था में किसी भी ‘‘सीधे-सादे फॉर्मूले’’ की संभावना को खारिज कर दिया।
उन्होंने कहा, 'यह परामर्शात्मक और सहयोगात्मक दृष्टिकोण पिछले 75 वर्षों से चला आ रहा है। जहां राज्यों के मुख्यमंत्री विधेयकों पर गतिरोध को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलते हैं। पिछले 75 वर्षों में हर मामला सर्वोच्च न्यायालय तक नहीं पहुंचा है। यह एक नया चलन है, जहां राज्य सीधे सर्वोच्च न्यायालय की ओर भाग रहे हैं।’’
मेहता ने तर्क दिया कि संविधान राज्यपाल से राज्य सरकार के कामकाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की अपेक्षा करता है।
उन्होंने कहा कि राज्यपाल न तो 'सुपर मुख्यमंत्री' हैं और न ही उनसे ऐसा होने की अपेक्षा की जाती है - जैसा कि कुछ दलों का दावा है।
विधि अधिकारी ने कहा कि राज्यपाल के पद की कल्पना एक ‘‘उच्च संवैधानिक ट्रस्ट’’ के रूप में की गई थी, न कि दिन-प्रतिदिन की राजनीति के ‘‘उपांग’’ के रूप में।
उन्होंने आगे कहा, ‘‘राज्यपाल का पद संस्थागत संतुलन बनाए रखने और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को राजनेता, संयम और तर्कसंगत भागीदारी के साथ प्रबंधित करने, संवैधानिक शासन को केवल सिद्धांत में ही नहीं, बल्कि व्यवहार में सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।’’
मेहता ने पंजाब सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार की राष्ट्रपति और ब्रिटिश राजघराने के बीच तुलना संबंधी दलीलों का भी विरोध किया।
मेहता ने कहा कि ब्रिटिश राजघराना वंशानुगत है, भारत के राष्ट्रपति के विपरीत, जो अप्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने जाते हैं, उन्हें पूरे देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है।
भाषा सुरेश माधव
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