- by Anamika Samrat
- 04-Jun-2023
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भारत की आजादी में उत्तराखंड की अपनी बडी भागेदारी रही है। यहां बड़े जनआंदोलन हुए। इस भूमि मे आकर महात्मा गांधी ने राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन किए। देश की आजादी के लिए जनमानस को झकझोरने वाली कई घटनाए इस पहाडी क्षेत्र मे हुई है।
भारतीय स्वाधीनता की पहली लडाई में गढवाल कुमाऊं का यह क्षेत्र बहुत सक्रिय नहीं हो पाया था। इसकी वजह यह थी कि इस क्षेत्र ने गोरखा शासन की क्रूरता को झेला था । साथ ही कुमाऊं का कमिश्नर रेमजे एक कुशल शासक था ,पहाडी भाषा में भी बोलने वाले इस प्रशासक ने लोगों को अपने तौर तरीकों से शांत रखा। दूसरी ओर टिहरी में भी राज परंपरा में अंग्रेजों के खिलाफ बडा माहौल नहीं बन सका। ऐसा नहीं कि 1857 की स्वतंत्रता संग्राम की लडाई में उत्तराखंड ने अपनी भागेदारी नहीं निभाई हो । कई जगहों पर प्रदर्शन हुए धरना आंदोलन हुए थे। इसी दौर में चंपावत गांव के कालू सिंह मेहरा पहले क्रांतिकारी कहे गए। उस समय पहाडी क्षेत्र में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिवीर संगठन भी चल रहा था। यह बात गौरतलब है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के केवल चौदह साल के अंदर कुमाऊं में अलमोडा अखबार का प्रारंभ हो गया था।
धीरे धीरे पूरे पर्वतीय क्षेत्र में आजादी की मांग उठने लगी। छिटपुट संघर्षों से उठकर आजादी के लिए बडे आंदोलन होने लगे। देश भर में जिस तरह से देश की स्वाधीनता के लिए आवाज उठ रही थी पर्वतीय क्षेत्र भी उसमें शामिल हुआ। महात्मा गांधी के 1916 में देहरादून आने से पहले ही यहां आजादी के लिए अलख जग चुकी थी। इसी साल कुमाऊ में हरगोविंद पंत गोविंद बल्लभ पंत बद्रीदत्त जोशी ने कुमाऊं परिषद की स्थापना की थी। इधर गढवाल क्षेत्र में बेरिस्टर मुकंदीलाल अनसूयाप्रसाद के नेतृत्व में कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया। इस दौर तक आते आते पूरे उत्तराखंड में आजादी के लिए चेतना जग चुकी थी। 1921 में कुली बेगार प्रथना के विरोध में सरयू में रजिस्टर बहाए गए थे। बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में यह आंदोलन सफल रहा । इसके बाद उन्हें कुमाऊं केसरी की उपाधि दी गई । इस आंदोलन से अंग्रेजों पर दवाब बना। विश्नी देवी ने कई महिलाओं के साथ अलमोडा थाने का घेराव किया था। इस दौर की इस घटना को जानना जरूरी है कि कुंती देवी ने गुफा में रहकर रेडियो से गुप्त प्रसारण किया था। अंग्रेज सरकार के खिलाफ इस तरह बिगुल बजाया गया। 1929 में गांधीजी कोसानी आए थे । हालांकि उनकी यह निजी यात्रा थी लेकिन इसका सामाजिक और स्वतंत्रा आंदोलन पर काफी प्रभाव पडा। भारतीय इतिहास में वीर चंद्र सिंह गढवाली को पेशावर कांड के महानायक के रूप में याद किया जाता है। 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर चंद्र सिंह गढवाली रायस गढवाल राइफल्स के जवानों का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेज अफसर ने उन्हें निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था। पहाडी फायर के जबाव में एक आवाज गूंजी थी मैं अपने निहत्थे भाइयों पर गोली नहीं चला सकता। वीर चंद्र सिंह गढवाली ने रात में ही अपने साथी सैनिकों के साथ बगावत करने की रणनीति बना ली थी। अंग्रेज सरकार यहां जलियाबाग की तरह कांड कराकर आंदोलनकारियों के हौसले पस्त करना चाहती थी। लेकिन वीरचंद्र सिंह ने अंग्रेजों को हतप्रद कर दिया। वो हक्के बक्के रह गए थे। इस घटना की गूज चारों ओर हुई। मोतीलाल नेहरू के आह्वान पर 30 अप्रैल का दिन गढवाल दिवस के रूप में मनाया जाता रहा।
गांधीजी ने नमक सत्याग्रह के लिए जब डांडी यात्रा की थी तो पर्वतीय क्षेत्र के तीन लोग उसमें शामिल थे। पहाड के कुछ लोगों ने साबरमति आश्रम में भी बापू के साथ रहकर आजादी के आंदोलन में उनका साथ दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन में जब पूरा देश सडकों पर उतर आया तो हिमालयी क्षेत्र से तो आवाज उठनी ही थी। यहां के युवा नारी शक्ति सबने देश को आजाद कराने का संकल्प ले लिया। पहाडों में चिंगारी सुलग उठी। बुद्धिशरण रावत नेताजी के निजी सहायक थे। कर्नल पितृशरण रतूडी कर्नल चंद्र सिंह नेगी मेजर देवसिंह दानू नेताजी के साथ जुडे हुए खास लोगों में थे। आजाद हिंद फौज में रहते हुए ज्ञान सिंह बिष्ट, महेंद्र सिंह बिष्ट जैसे बलिदानियों का नाम स्वर्ण अक्षरो में अंकित है।
हिमालयी क्षेत्र में आजादी के लिए जो संघर्ष हुआ उसका अपना महत्व हुआ। यहां के जनआंदोलनों ने अंग्रेज सरकार को अहसास कराया कि हिमालयी क्षेत्र से लेकर दक्षिण हिंद महासागर तक आंजादी के संघर्ष में हर व्यक्ति अलख जगा चुका है। उत्तराखंड में घर घर से लोग आजादी के आंदोलन में अपनी भागेदारी दी। जेलों में रहे यातनाएं सही। देवभूमि में कई प्रतीक स्थल हैं जो आज आजादी के उस संघर्ष की याद दिलाते हैं। भारतीय आजादी के संघर्ष का पूरा इतिहास भारतीय गौरव से जुडा हुआ है। आजादी के लिए जीवन का बलिदान करने वालों, त्याग - संघर्ष करने वालों, क्रूर यातना सहने वालों को शत शत नमन