Thursday, June 8, 2023

तो इस तरह बदलेंगे भारत को



लॉकडाउन के प्रभाव और आने वाले समय और उसकी व्यवस्थाओं को लेकर हमर देश अपनी अपनी तरह से चिंतन कर रहा है। कोरोना ने हर देश को अपनी चपेट में लिया है, ऐसे में अर्थव्यवस्था पर किस तरह का प्रभाव पडेगा इसकी चिंता अपनी अपनी तरह से है। खासकर ऐसे यह अवलोकन का भी समय है कि भारत इस कोरोना संकट और उसके बाद की परिस्थितियों से लड़ने के लिए किस तरह अपने को तैयार कर रहा है । और वास्तव में उसके सामने कैसी चुनौतियां हैं तो एक बार हमारी निगाह विश्व के देशों की ओर भी जाती है कि कोरोना से लड़ने के लिए वे अपने को किस तरह तैयार कर रहे हैं। बदलते समय और बदलते विश्व के नए मापको में वे अपने को किस तरह ढाल रहे हैं। खासकर बदलती अर्थव्यवस्था में उनकी प्राथमिकता क्या है। बदलती जीवन शैली और दुनिया में तमाम ऐस देशों के समक्ष हम अपना आत्मलोचन भी कर सकते हैं । जब दुनिया के ये देश इस तरह सजगता बरतते हुए नए माहौल में ढलने का प्रयास कर रहे हैं तब भारत में लोग इसकी तुलना में किन चीजों की ओर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं या ऐसे समय भी उनकी प्राथमिकता क्या है यह समझना जरूरी है।

पहले अमेरिका के हालात को ही देखें। कई अमेरिकन तो यही सोच रहे हैं कि लॉकडाउन की जरूरत ही नहीं। ऐसा नहीं कि लॉकडाउन के पालन न करने के खतरे , वो वाकिफ न हों। बल्कि अमेरिका में तो इसका कहर सबसे ज्यादा बरपा है। लेकिन अमेरिकन समाज में एक खास श्रेष्ठ ग्रंथी उनकी सोच यही बनाती है कि अमेरिकन अपने खतरों से निपटना जानते हैं। उन्हे लॉकडाउन जैसे किसी सुरक्षा कवच की जरूरत नहीं। कहीं न कहीं यह अपने सिस्टम पर बेहद भरोसा करने की एक सोच है। चाहे हालात कितने बदतर हो जाएं लेकिन अमेरिकी सोच इसी तरह कायम है। अमेरिकन अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच आए बगैर कौरोना से निपटना चाहता है। इस बीच अमेरिकियो के जो साक्षात्कार टीवी पर दिखे उनमें यही बातें दोहराई जाती रही जल्द से जल्द लॉकडाउन खत्म होकर नियमित रूप से उद्यम कारोबार शुरू हो रोजगार उपलब्ध हो। अमेरिकी इस सोच को इस तरह से भी लेते हैं कि चीन ने जिस तरह उनकी अर्थ्व्यवस्था को नष्ट करने के लिए यह वायरस तैयार किया है उसे एक विदेशी आक्रमण की तरह लेकर किसी न किसी तरह अपनी अर्थव्यवस्था को बचाना ही है। चाहे इसके एवज में जनहानि की कीमत ही क्यों न चुकानी पडे। अमेरिकी मानते हैं कि युद्ध में तो जनहानि होना स्वभाविक है लेकिन अर्थव्यवस्था को बचाए रखने की चुनौती अहम है। सगभग इसी सोच पर जर्मनी भी चल रहा है। यूरोप अमेरिका इन चर्चाओ के बीच है कि अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से किक स्टार्ट कैसे करें। आर्थिंक चक्का फिर कैसे चल पडे। साथ ही इन देशों में सोचा जा रहा है कि भविष्य में यदि इस तरह के वायरस अटैक हो तो उनसे निपटने के लिए किस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर और सेवा तंत्र बनाया जाए। तमाम बातों को सोचते हुए वे अपने उत्पादन, वितरण जैसे पहलुओं पर वे विचार कर रहे हैं। केवल विचार ही नहीं कर रहे हैं। नई संरचना और माहौल में वहां की कंपनियों ने अपन कामकाज के तरीके बदल लिए है। आफिस स्ट्रक्चर बदल लिया है। आफिस में काम करने वालों के लिए बैठने के सुरक्षित स्थान बनाने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया है। फ्लेक्सिग्लास लगाकर हर व्यक्ति को प्राइवेट केबिन या सुरक्षित जगह देने का काम करना शुरू कर दिया है। यानी कह सकते हैं कि कार्यस्थल पर सामाजिक शारिरिक दूरी बनाए रखने की पूरी प्रक्रिया शुरू होने लगी है। विमान कंपनियों में भी यात्री कुछ नए परिर्वतन के साथ अपनी सीट व्यवस्था को पाएंगे। सुरक्षित दूरी का वहां पूरा ख्याल रखा जाएगा। सुपर स्टोर्स ग्राहकों की सुरक्षा की दृषिट से हाथों में सॉनिटाइजर का स्प्रे बिलिंग काउंटर पर आयसोलेशन क्यू के लिए रेंलिग लगाना एफिसिएंट आन लाइन डिलिव्हरी जैसे सुविधा पर इन देशों में विगत 3- -40 दिनों में देखने को मिल रही है। आगे आने वाले समय में यह सब जीवन का एक जरूरी हिस्सा बनने जा रहा है।इस समय लगभग पूरी दुनिया अपने को इस पर केंद्रित कर रही है कि कैरोना से कैसे निपटा जाए और अपनी अर्थव्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाए। लेकिन भारत में ऐसी चिंता कम दिखती है। कुछ लोग जरूर आने वाले समय के लिए अपने को तैयार करते दिखते हैं। बदलते विश्व के साथ अपने आप को भी बदलने की कोशिश करते दिखते है। लेकिन एक बडा जनमानस वह भी है जिसके लिए ल़ाकडाउन के इस संकट में शराब पर चुटकियां , घरों में रह रहे मर्दों के कपडे धोने बर्तन मांजने पत्नी के मायके से आते फोन मर्दों का खाना बनाना लाकडाउन तोडने पर पुलिस के जरिए उठकबैठक करवाना मुर्गा बनाना नरेंद्र मोदी राहुल गांधी नेताओं पर गांधी पर व्यंग्य टिकटाक जैसे विषय महत्व रखते हैं। सोशल साइट्स पर नजर आ रहा है कि भारतीय या तो हर गंभीर घटना को हास परिहास में बदलने में कुशल हो रहे हैं या राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की तरह बहसों में उलझे हैं। बहस भी घंटों लंबी जिसका कोई ओरछोर नहीं। सब एक दूसरे पर प्रहार करते लेकिन किसी से सहमत होने का धैर्यनहीं दिखता। किसी घटना पर क्षुद्र राजनीति मजदूरों के गांव जाने की व्यवस्था पर राजनीति हर घटना पर राजनीति इन्हीं सब बातों पर हम उलझे हुए हैं। सोशल मीडिया में भी बहुत हल्की किस्म की चीजें पढने देखने को मिलती है। राजनीति की बहसों में हमेशा उलझे रहते हैं।जबकि दौर यह था कि इस विपत्ति संकट के समय हमें बहुत सी गंभीर विषयों की ओर सोचना था। बेशक हल्के फुल्के मजाक चुटकियां व्यंग्य ये जीवन के हिस्से हैं लेकिन इनमें ही समय नष्ट और ऐसी चर्चांओं में समय गंवाना व्यर्थ जिसके कोई नतीजे नहीं। कोरोना का संकट विश्व व्यापी है राष्ट्र के समक्ष है और इस लडाई मे हर व्यक्ति का साथ चाहिए।
आप सोशल मीडिया में देखिए ऐसी पोस्ट आपको कम नजर आएंगी जो बताए कि कोरोना जाने के बाद फिर से कैसे एक बेहतर संपन्न समाज के लिए हम खडे हों। देश समाज और व्यक्तिगत नुकसान से कैसे उभरें। इस पर आप लंबी टिप्पणी देख सकते हैं कि सब्जी अनाज दुगनी कीमत पर बिकी तो सरकार प्रशासन कार्रवाई नहीं करता लेकिन शराब न बिकने पर सरकार के रेवन्यू को लेकर चिंतित हो जाती है। बेशक बातें की जानी चाहिए। लेकिन हम बहुत केंद्रित हो जाते हैं। देश के बडे कलाकार इरफान ऋषि कपूर इस दुनिया को अलविदा कहते हैं निश्चित कलाकार के जाने का दुख सिनेप्रेमियों को होगा। लेकिन उत्सुक्ता ललक इस जानने की दिखी कि ऋषि की आखरी वीडियो क्या थी उनकी संपत्ति कितनी थी। इरफान का अंतिम संस्कार किस तरह किया गया । दोनों ही कैंसर से मारे गए। लेकिन कैंसर को लेकर या उन्हें क्या कैंसर था किस तरह की स्थितियां ऐसे रोग में बनती है , कैसे कैंसर से टक्कर ली जाए शायद खंगालने पर भी कहीं कोई पोस्ट मिले। फेस बुक देखिए लॉकडाउन के समय तमाम रेसिपियां मसालेदार व्यंजनों पर आपको पोस्ट मिलेगी तस्वीरें दिखेंगी।वास्तव में हमारा देश इस समय संकट में है। कोरोना के बाद भीषण मंदी आने वाली है। इसलिए कैसे मितव्ययी हो , कैसे जरूरी संसाधनों की कैसे बचत करें इस पर कहीं कोई चित्र नहीं। अजब लगता है कि कालेज के प्रोफेसर स्कूलों के शिक्षक अपने विषय को छोडकर सोशल मीडिया में राजनीति बहसों में उलझे रहते हैं। जबकि वह अपने विषय से संबधित जानकारी सोशल साइट्स पर देकर ज्ञान बढा सकते हैं। कलाकार चित्र कैसे सुंदर बनाए चित्रकला कैसे सधे इस पर बात नहीं करते नहीं दिखते कलाकार संगीतकार गीत संगीत पर नहीं राजनीति और बेमतलब की बहसों में उलझे होते हैं। कृषि विशेषज्ञ कैसे बागवानी करे किचन गार्डन कैसे तैयार करें इस बारे में नहीं बताते इन सबको टिकटाक करते देख सकते हैं।
खासकर उत्तराखंड में जहां 52 हजार प्रवासी वापस आ चुके हैं। और भी लोग पहाडों की ओर लौट सकते हैं। तब यह एक चुनौती की तरह है कि किस तरह उन्हें यहां की आर्थिकी रोजगार से जोडा जाए किस तरह वे सरकार की योजनाओं से जुड सके। हमारी चिंता इस तरफ होनी चाहिए कि पहाडों का आगे का स्वरूप क्या हो। वास्तव में इतनी बडी संख्या में आने वाले लोगों से हम किस तरह इस प्रदेश का विकास कर सके। पहाडों में लौटने वाले अपने ज्ञान श्रम अनुभव और धन के साथ भी लौट रहे हैं। बेहतर पहल हो तो यह राज्य खुशहाल हो सकता है। हमारी चिंता इस तरफ होनी चाहिए। लेकिन सोशल मीडिया में हम कुछ बिंदुओ में कुछ राजनीतिक दलों के पक्ष या विपक्ष में ही सिमटे रहते हैं। जिस रिवर्स पलायन की बात की जा रही थी इस घटना से लोग स्वत ही लौट आए हैं। वास्तव में निरर्थक चर्चा , बहसों एक दूसरे का मजाक कटाक्ष फूहडता के लिए मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं। मीडिया ने लोगों को सजग होने के बजाय इन सब बातों के लिए उकसाया। जब हमारे सामने कई गंभीर मसले हो तो मीडिया की जिम्मेदारी और गंभीर हो जाती है। देखा गया है कि मीडिया के कई बडे पत्रकार स्वंभू बन कर एक तरह से पत्रकारिता के मठ चला रहे हैं। मीडिया को इस दिशा में सोचना होगा। आज की मीडिया हल्के उठते बुलबुलों का ही मजा लेना सीख रहा है। वे राजनेताओं की तरह मजदूरों की दशा दिक्कत को भी राजनीतिक रंग देने में कुशल रहते हैं। मजदूरों की समस्या हो यो किसानों की उनकी वास्तविक दिक्कतों से उन्हें कुछ लेना देना नहीं होता। खेती बागवानी का भले उन्हें पा न हो लेकिन सोशल साइट्स पर वे घंटो बहस करते दिखेंगे।
सोशल साइट्स पर देखिए लगभग हर पत्रकार केवल राजनीति पर ही बहस करता दिखेगा। और पत्रकार भी खांचों में बंटे हैं। देश या राज्य के समक्ष खडी या आने वाली किसी चुनौती के लिए सामूहिक होकर लडने का भाव उनमें नहीं दिखता।
जिन लोगो को सोशल मीडिया पर विदेशो से लोगो को लाने में भी राजनीती दिख रही है कही न कही उनको सोचना चाहिये कि कल तक वो ही लोग उन लोगो के विदेश जाने पर टिपणी करते थे क्या वास्तव में उन लोगो को देश में लाना गुनाह है आज वो लोग देश वापस आ रहे है तो अपने साथ कुछ अनुभव लेकर ही आ रहे होंगे. चिंता इस बात की होनी चाहिए की उन लोगो को देश में रोकना है और उनसे हमें क्या लाभ मिल सकता है कैसे हम उन लोगो का यहाँ उपयोग कर सकते है और अपने विदेशो में रह रहे लोगो को एक मैसेज दे सकते है इन सब बातो पर बात न करकर हम वो आ क्यों रहे है इस बात पर चर्चा में लगे है यहाँ भी अमीर और गरीब की बात कर रहे है आखिर क्यों कोई सोचना नहीं चाहता केवल हर स्तर पर नकरात्मक बाते करने की आदत सी बन गयी है जो जितना नकरात्मक होगा वो उतना बड़ा चिंतक और ज्ञानी होगा. *आज भी समय है कुछ करने और सोचने का अपने लिए भी और अपने हिंदुस्तान के लिए भी , *मेरी ये सभी बाते बोहत लोगो को बुरी लगेगी लकिन सच्चाई से कब तक भागोगे. सोचना होगा. ……………………,……………,.. *प्रविंद्र गोस्वामी की कलम से ……….

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